संकट में शिक्षा उद्योग; आईआईटियन्स को भी नहीं मिल रही नौकरी

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संकट में शिक्षा उद्योग; आईआईटियन्स को भी नहीं मिल रही नौकरी

दुर्ग/भिलाई। दुर्ग भिलाई में एक दर्जन निजी इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। यहां से हर साल बड़ी संख्या में युवक पढ़कर निकलते हैं। पहले इंजीनियरिंग करने वालो को कुछ न कुछ नौकरी मिल जाती थी, मगर आज छत्तीसगढ़ के वे युवक जिन्होंने लाखो खर्च कर इंजीनियरिंग पढ़ी है, उनके सामने रोजगार का संकट है। प्रदेश के इंडस्ट्रीज में 20 हजार रुपया महीना नौकरी करने विवश हैं। कुछ तो खेती बाड़ी में जुट गए हैं। 
एक हालिया सर्वे में यह बात सामने आई है कि देश की प्रीमियर इंस्टीट्यूट आईआईटी से निकलने वाले इंजीनियर्स को भी अब अच्छी नौकरियां नहीं मिल रहीं। आंकड़ों के मुताबिक आईआईटी खड़गपुर के 53 फीसद, आईआईटी इंदौर के 50 फीसद, आईआईटी भुवनेश्वर के 29 फीसद और आईआईटी पटना के 33 फीसद, आईआईटी मुम्बई के 36 फीसद ग्रैजुएट्स का कैम्पस प्लेसमेंट नहीं हुआ। हालांकि यह ट्रेंड काफी पहले से चल रहा था मगर यह मुखर हुआ कोरोना काल के बाद कोरोना काल के दौरान जब पूरा विश्व ठहर गया तो इसका सबसे खतरनाक असर हुआ उद्योग-धंधों पर। अनिश्चित भविष्य ने लोगों को इतना डराया कि एक बार फिर दुनिया बचत की ओर लौट गई। जमे-जमाए उद्योग धंधों ने वैकल्पिक निवेश के रास्ते ढूंढने शुरू कर दिये। कुछ लोगों ने पीक रेट पर अपनी कंपनी बेची और नए विकल्पों पर काम करने लगे । अस्थिरता के इस दौर का असर वेतन और पैकेज पर भी पड़ा पर शिक्षा उद्योग ने लोगों का ध्यान बंटा दिया। हमेशा की तरह उसने नए-नए कोर्स, नई-नई डिग्रियां और सर्टिफिकेशन का एक नया जाल बिछाना शुरू कर दिया  हालांकि, इसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता । अन्यान्य क्षेत्रों की भांति संकट में शिक्षा उद्योग भी है। पर इसका नुकसान यह हुआ कि जॉब मार्केट टर्बुलेंस की तरफ लोगों का वैसा ध्यान नहीं गया, जैसा कि जाना चाहिए था। लोगों को नहीं दिखा कि 15-16 लाख का पैकेज ऑफर करने वाली कंपनियों ने 5-6 लाख का जॉब ऑफर करना शुरू कर दिया। महानगरों को छोड़कर वे छोटे शहरों के कालेजों में कैम्पस करने लगे. जो कंपनियां पहले इंजीनियरिंग कालेजों में कैम्पस करती थीं, अब उन्होंने डिग्री कालेजों का रुख कर लिया। ये बड़ी कंपनियां अब तक अपना दफ्तर मुम्बई, नोएडा, गुरुग्राम, बेंगलुरू, हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में खोलती थीं। यहां कॉस्ट ऑफ लिविंग महंगा होने के कारण अच्छा पैकेज देना उनकी मजबूरी थी। कोरोनाकाल ने इसका भी साल्यूशन दिया – वर्क फ्रॉम होम. कंपनियों को इसका ऐसा चस्का लगा कि उन्होंने अपना एस्टैब्लिशमेंट कॉस्ट कम कर लिया. वर्क फ्रॉम होम को स्थायी कल्चर बना दिया। इससे न केवल उसका स्थापना व्यय कम या शून्य हो गया बल्कि लोगों को महानगरों में ऊंचा वेतन देकर बुलाने की समस्या से भी निजात मिल गई. कुछ दिन पहले इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि उच्च शिक्षितों को रोजगार हासिल करने में दिक्कतें हो रही हैं जबकि कम पढ़े लिखे लोगों को काम आसानी से मिल रहा है। दरअसल, यह पूरा खेल सैलरी एक्सपेक्टेशन का है. लोगों को सिर्फ पैकेज का आकार दिखता है। उससे जुड़े खर्च आज भी उनकी समझ में नहीं आते। अपने शहर में 15 हजार की नौकरी करने वाला बाइक खरीद सकता है। जबकि हैदराबाद, बेंगलुरू, मुम्बई, गुरुग्राम जैसे शहरों में नौकरी करने वाले बच्चों को 50 हजार की सैलरी मिलने के बाद भी घर से पैसे मंगवाने पड़ते हैं।